महानगर तुम वैसे तो नहीं रहे
जैसा देख गया था
दो - चार दशक पूर्व,
पहले तो था मृगछौने सा
अब फैल गया रे
गहरी स्याही सा या चिकनी काई सा ।
जैसा देख गया था
दो - चार दशक पूर्व,
पहले तो था मृगछौने सा
अब फैल गया रे
गहरी स्याही सा या चिकनी काई सा ।
तुमने स्वीकार किया था
तब हमको पूरे मन से ,
आज भी स्वीकृति है यथावत
पर लगती है बह गई उष्णता
सागर के गहरे पानी में,
अनुभव में है
ठंडे चूल्हे सा या बेमन दुल्हे सा।
तब हमको पूरे मन से ,
आज भी स्वीकृति है यथावत
पर लगती है बह गई उष्णता
सागर के गहरे पानी में,
अनुभव में है
ठंडे चूल्हे सा या बेमन दुल्हे सा।
हवा हो गई पारे जैसी
नहीं रही वह तरल - सरल सी
ना तितली सी ना उर्मि सी।
पानी तो पानी जैसा पर
नहीं रहा है मृदुल मधु सा
काजल सा या वो पागल सा।
नहीं रही वह तरल - सरल सी
ना तितली सी ना उर्मि सी।
पानी तो पानी जैसा पर
नहीं रहा है मृदुल मधु सा
काजल सा या वो पागल सा।
धूप बहुत ही बंधी - बंधी सी
आती - जाती कठिनाई से
करवट सी या वो सलवट सी ।
जीवन आपाधापी में फलता
रेलों में और यानों में अब,
डोल रहा है अर्थतंत्र में
नावों सा या गाँवों सा।
आती - जाती कठिनाई से
करवट सी या वो सलवट सी ।
जीवन आपाधापी में फलता
रेलों में और यानों में अब,
डोल रहा है अर्थतंत्र में
नावों सा या गाँवों सा।
लेकिन बहुत हर्ष से कहता
संस्कार और मूल्यों को ले
महानगर अभी भी सक्रिय है तू
जीवन गठबंधन सा या स्पंदन सा।
फिर - फिर आऊँगा ही
मिलने को मैं महानगर से
अभी लौटना है इसी आस में
यायावरी में पुनः मिलेगा
फुलवारी सा या जलधारी सा।
संस्कार और मूल्यों को ले
महानगर अभी भी सक्रिय है तू
जीवन गठबंधन सा या स्पंदन सा।
फिर - फिर आऊँगा ही
मिलने को मैं महानगर से
अभी लौटना है इसी आस में
यायावरी में पुनः मिलेगा
फुलवारी सा या जलधारी सा।
- त्रिलोकी
मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज)
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