Wednesday, 6 January 2016

हम यायावर से हुए

सुबह की ठंडी हवाएं 
वातायन से आकर 
मेरे पार्श्व का संस्पर्श 
करती है ऐसे 
मानों तुम झुलसी हुई आकर 
पकडे़ हुए स्कंध मेरा 
झुकी - झुकी छोड़ रही हो 
शांत उच्छवास।
कई-कई योजन की दूरियाँ 
स्वयं ने बनाई है 
अपने ही बनाए 
या बलात् गढ़ लिए गए 
जीवन-सिद्धांतों के चलते , 
समक्ष हमारे है 
कपासी मेघ से परिणाम,
डोल रहे हम 
वियोगिनी हवाओं के जैसे।
हजारों योजन दूर होकर भी 
हम कट नहीं सकते 
गलियों और चौराहों के 
धूल भरे आँगन से,
जहाँ हमारे रचे गए सब खेल 
आज भी है ताजा, 
जिनके समक्ष बहुत छोटी है 
हमारी गढ़ी गई तमाम 
आज की सायास रचना,
मानो कह रही हो तुम 
इन हवाओं के बहाने 
मेरे कान से सटकर।
आज तुम सुफलिता होकर 
कहीं गढ़ रही होंगी 
अपने स्वप्न को 
यथार्थ के तरल क्षणों में, 
जैसे बहती हवा गढ़ती 
निर्मम पत्थरों को 
गोलाइयाँ देती आकृतियाँ, 
दूसरी ओर 
हम यायावर से हुए
डोलते जाते जहाँ - तहाँ 
बस तुम्हारा अनुभव करने के लिए।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द. ( राज.)


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