सुबह की ठंडी हवाएं
वातायन से आकर
मेरे पार्श्व का संस्पर्श
करती है ऐसे
मानों तुम झुलसी हुई आकर
पकडे़ हुए स्कंध मेरा
झुकी - झुकी छोड़ रही हो
शांत उच्छवास।
वातायन से आकर
मेरे पार्श्व का संस्पर्श
करती है ऐसे
मानों तुम झुलसी हुई आकर
पकडे़ हुए स्कंध मेरा
झुकी - झुकी छोड़ रही हो
शांत उच्छवास।
कई-कई योजन
की दूरियाँ
स्वयं ने बनाई है
अपने ही बनाए
या बलात् गढ़ लिए गए
जीवन-सिद्धांतों के चलते ,
समक्ष हमारे है
कपासी मेघ से परिणाम,
डोल रहे हम
वियोगिनी हवाओं के जैसे।
स्वयं ने बनाई है
अपने ही बनाए
या बलात् गढ़ लिए गए
जीवन-सिद्धांतों के चलते ,
समक्ष हमारे है
कपासी मेघ से परिणाम,
डोल रहे हम
वियोगिनी हवाओं के जैसे।
हजारों योजन दूर होकर भी
हम कट नहीं सकते
गलियों और चौराहों के
धूल भरे आँगन से,
जहाँ हमारे रचे गए सब खेल
आज भी है ताजा,
जिनके समक्ष बहुत छोटी है
हमारी गढ़ी गई तमाम
आज की सायास रचना,
मानो कह रही हो तुम
इन हवाओं के बहाने
मेरे कान से सटकर।
हम कट नहीं सकते
गलियों और चौराहों के
धूल भरे आँगन से,
जहाँ हमारे रचे गए सब खेल
आज भी है ताजा,
जिनके समक्ष बहुत छोटी है
हमारी गढ़ी गई तमाम
आज की सायास रचना,
मानो कह रही हो तुम
इन हवाओं के बहाने
मेरे कान से सटकर।
आज तुम सुफलिता होकर
कहीं गढ़ रही होंगी
अपने स्वप्न को
यथार्थ के तरल क्षणों में,
जैसे बहती हवा गढ़ती
निर्मम पत्थरों को
गोलाइयाँ देती आकृतियाँ,
दूसरी ओर
हम यायावर से हुए
डोलते जाते जहाँ - तहाँ
बस तुम्हारा अनुभव करने के लिए।
कहीं गढ़ रही होंगी
अपने स्वप्न को
यथार्थ के तरल क्षणों में,
जैसे बहती हवा गढ़ती
निर्मम पत्थरों को
गोलाइयाँ देती आकृतियाँ,
दूसरी ओर
हम यायावर से हुए
डोलते जाते जहाँ - तहाँ
बस तुम्हारा अनुभव करने के लिए।
- त्रिलोकी
मोहन पुरोहित, राजसमन्द. ( राज.)
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