मुक्ति का अर्थ है मुक्ति में
हम भटकते हैं मुक्ति के लिए
दीवारें और दीवारें
पत्थर और पत्थर
शून्य और शून्य .......
ये सब आते हैं जिंदगी में
मुक्ति के अभाव में
जैसे जीवन हो जाता है विवश
दृष्टि के अभाव में
रतजगे जैसी परंपरा के नाम पर।
हम भटकते हैं मुक्ति के लिए
दीवारें और दीवारें
पत्थर और पत्थर
शून्य और शून्य .......
ये सब आते हैं जिंदगी में
मुक्ति के अभाव में
जैसे जीवन हो जाता है विवश
दृष्टि के अभाव में
रतजगे जैसी परंपरा के नाम पर।
मुक्ति के अर्थ को
वे कैसे जान सकते
जो अक्सर पंख बांधने के
हूनर को तराशते रहते
जैसे बहेलिया पक्षी को
फाँसने का हूनर
नित्य ही तराशता रहता
मानो यही है उसकी जिंदगी का सत्य।
वे कैसे जान सकते
जो अक्सर पंख बांधने के
हूनर को तराशते रहते
जैसे बहेलिया पक्षी को
फाँसने का हूनर
नित्य ही तराशता रहता
मानो यही है उसकी जिंदगी का सत्य।
बहेलिया छू नहीं सकता गगन
उसमें उड़ान भरने का होंसला नहीं
बहेलिया ऊंचाई भी नाप नहीं सकता
उससे स्वप्न नहीं देखा जा सकता
बहेलिया गा नहीं सकता
वह प्रेम से परिचित ही नहीं
वह कैद है स्वयं में
अतः अपनी निजता के लिए
सभी को कैद करता है
वह क्रूर है इतना इसलिए कि
उसका मुक्ति से नहीं है परिचय।
उसमें उड़ान भरने का होंसला नहीं
बहेलिया ऊंचाई भी नाप नहीं सकता
उससे स्वप्न नहीं देखा जा सकता
बहेलिया गा नहीं सकता
वह प्रेम से परिचित ही नहीं
वह कैद है स्वयं में
अतः अपनी निजता के लिए
सभी को कैद करता है
वह क्रूर है इतना इसलिए कि
उसका मुक्ति से नहीं है परिचय।
मुक्ति के लिए छटपटाने पर
मुशकें और एड़ियाँ बंधनों से
उसी तरह छिल जाती है
जैसे छिल दी गई हो
रसोई में तरकारी
पीठ जलती है घिसटने से
मानों किसीने तैश में आकर
नर्म चर्म पर मल दिया हो खार
आत्मा गंदे और भद्दे शब्दों से
मुक्त होने के लिए
हो जाती है तार-तार
जैसे गिलहरी ने कुतर दिया हो
महीन मलमल का सुकोमल वस्त्र
इतने सब पर भी हमें चाहिए मुक्ति
चाहे दीजिए संत्रास जी भर-भरकर।
मुशकें और एड़ियाँ बंधनों से
उसी तरह छिल जाती है
जैसे छिल दी गई हो
रसोई में तरकारी
पीठ जलती है घिसटने से
मानों किसीने तैश में आकर
नर्म चर्म पर मल दिया हो खार
आत्मा गंदे और भद्दे शब्दों से
मुक्त होने के लिए
हो जाती है तार-तार
जैसे गिलहरी ने कुतर दिया हो
महीन मलमल का सुकोमल वस्त्र
इतने सब पर भी हमें चाहिए मुक्ति
चाहे दीजिए संत्रास जी भर-भरकर।
चारों तरफ है
साँय-साँय करता भयानक सन्नाटा
जहां जिंगूर चीखते रहते
रोशनी के अभाव में
हर आकृति भयावह होती हुई
चमकाती है दंतावली
आँगन इतना चिपचिपा कि
रेंगती रहती हैं लिजलिजी सी जोंक
तिसपर गर्म सलाखों से शब्द
हृदय को भेदते ऐसे
मानो काटते सजा काले पानी की
फिर भी ........
अंतिम सांस तक उम्मीद है
संवेदनहीन पत्थरों से
मुक्ति मिल जाएगी इक दिन ।
साँय-साँय करता भयानक सन्नाटा
जहां जिंगूर चीखते रहते
रोशनी के अभाव में
हर आकृति भयावह होती हुई
चमकाती है दंतावली
आँगन इतना चिपचिपा कि
रेंगती रहती हैं लिजलिजी सी जोंक
तिसपर गर्म सलाखों से शब्द
हृदय को भेदते ऐसे
मानो काटते सजा काले पानी की
फिर भी ........
अंतिम सांस तक उम्मीद है
संवेदनहीन पत्थरों से
मुक्ति मिल जाएगी इक दिन ।
- त्रिलोकी
मोहन पुरोहित, राजसमंद।
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