Thursday 7 January 2016

नवीनता के लिए

जिंदगी और मौत की 
जद्दोजहद में 
अक्सर जिंदगी को ही 
जीतते देखा गया, 
परंतु जब भी जीतती है मृत्यु 
जीवन के पास 
फिर से बाजी लगाने का 
अवसर ही नहीं रहता 
मानो सूरज की प्रखर धूप में 
पानी का भाप बन 
हवा में विलीन हो जाना 
होता है तय।
जिंदगी मुखर होती हुई 
छा जाती है विविध रंग लिए 
जैसे बरसात के मौसम में 
अक्सर तन जाता है इन्द्रधनुष 
लेकिन कुछ ही क्षणों में 
वह विलीन हो जाती है मानो 
समुद्र में उठते हुए फेन 
लहरों की उठा-पटक में 
हो जाते हैं लुप्त
अनन्त जल राशि में ।
जिंदगी भी इन्द्रधनुष के 
जैसे ही होती रहती विकसित 
उसके जैसे ही होती रहती प्रसरित 
धीरे-धीरे चंदोवे सी तनती 
तनकर सजती आकर्षक रंगों में 
फिर अचानक लुप्त हो जाती 
बिना किसी पूर्व सूचना के।
इन्द्रधनुष का लोपन - गोपन
लाता है क्या
गगन में सूनेपन को? 
नहीं - नहीं, 
नहीं मानता सूनेपन को, 
तब फिर आता होगा रिक्त भाग से 
शोक भरा सन्नाटा 
जो घायल करता होगा 
शिशु सम कोमल मन को? 
नहीं - नहीं, 
मैं इसे भी नहीं मानता,
नियति ही कुछ ऐसा करती है 
नव सृजन स्थापित करने को।
जीवन की यात्रा में 
पड़ाव से पड़ाव के मध्य 
कितने ही विकट मृत्यु के 
आघात लगते हैं 
कभी भूख के रूप में 
कभी अभाव के रूप में 
कभी त्रासदी के रूप में 
समस्त आघात सहते हुए 
सजती है इन्द्रधनुष सी जिंदगी 
फिर ऐसा क्या होता है कि 
अचानक जीवन हार जाता है 
मृत्यु के सम्मुख 
दलील दी जाती है संवेदना के रूप में -
नवीनता के लिए मृत्यु पहल करती है।
- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द।


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