Wednesday, 6 January 2016

मुक्ति की चाह

मित्र, हम आज भी 
अपने-अपने वातायन से 
झांकते हैं बाहर 
अपने ही बनाए गए मकानों से, 
जैसे सुदृढ़ तीलियों से 
सटाकर अपनी आँखें 
ताकते हैं द्विज सुदृढ़ पिंजर से,
द्विज और हममें 
मुक्ति की चाह है एक सी I
गोरी लड़की जो मुक्ति की 
चाह में हो गई संन्यस्त,
अब वह करती रहती 
प्रेम के नाम पर बातें कुछ भावुक, 
गेरुए वस्त्र धार मृत्यु और मोक्ष को लिए 
फिर से उलझ गई है पूर्व से अधिक 
रोती है अकेले में स्वयं ही
गृहस्थ जीवन की मीठी स्मृतियों को लिए, 
अनुचर खींचते हैं उसके चित्र
योगिनी रुदन की चित्रावलियाँ दिखा-दिखा भरमाती है
कहती है - यह ध्यान की चरमावस्था I
मित्र , हमारी ही तरह 
वह गोरी योगिनी भी 
छिपा रही है दमित इच्छाएं,
आवरण की भिन्नता छोड़ दी जाएं 
तब हमारी सारी बातें हैं एक सी
हम हैं गोरी योगिनी से और गोरी योगिनी है हम सी I
सुहाग का जोड़ा पहने 
सुहागिन मनाती है
पहनकर लाल-लाल चूड़ियाँ
ढेर सारा मांग में सिन्दूर पूरे 
रेशम की साड़ी अपने तन पर कसे-कसे
अपने दाम्पत्य जीवन के प्रारम्भ का महोत्सव, 
पर, अपने अनुष्ठान में दिखाई देती है अकेली, 
हो गया उसका सहचर कहीं अलग-थलग
जैसे छिटक गई हो साथ-साथ उठी बदलियाँ 
हवा के झोंके से, 
वो अपने अकेलेपन की शर्मिंदगी को छिपाती है 
अपने तथाकथित प्रगतिवादी कथनों में, 
उत्तेजना के सह सभी को बताती है 
यह है मुक्ति की राह में उसका बढ़ा हुआ प्रथम चरण,
तब हम करते हैं अनुभव 
सब कितने हो गए मौकापरस्त 
और,हो गई है 
सभी की अवसरवादिता है एक सी I
हमें अभी मुक्ति नहीं मिल सकती 
हम निरावृत्त जो नहीं हो सकते,
दुहरा व्यक्तित्व ओढ़ने की जिद 
अभी भी चिपकी हुई है हमसे 
काली-काली चिपचिपी भद्दी जोंक सी I
-त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द (राज).


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