Sunday, 29 December 2013

संबंध और सरोकार

जो सोये हैं, उनके पास नींद है ,
वे जिंदगी में अकेले हैं ,
या, उन को किसी से कोई ,
सरोकार नहीं
जैसे बर्फ का अकेले सोना
परंतु पानी का निरंतर जागना ।

संबंध और सरोकार
कभी चैन से
रहने ही नहीं देते ,
ये दोनों नित्य ही,
दिमाग में घंटियाँ बजाते रहते हैं
जैसे रेल पटरियाँ और स्टेशन। 

दिमाग में बजती घंटियाँ,
किसी खतरे को,
या,किसी अनहोनी को बताती है ,
ऐसी स्थिति में,
बजती हुई घण्टियों के आगे,
नींद नहीं टिका करती
जैसे दौड़ती व्याकुल नदी ।

जवान लड़की ,
जिसे अभी खिलखिलाना है,
किसी गुलाब की मानिंद,
वह अपने ही शोहर की ,
बदमिजाजियों की वजह से रोती है
जैसे झर रहा हो नर्म झरना। 

पिता का संबंध
अपनी जवान बेटी से है ,
और बेटी की जिंदगी से,
उसे सीधा सरोकार है,
अब भला संबंध और सरोकार के रहते ,
नींद आए तो आए कैसे?
जैसे बहती हवा में दीपक का लड़खड़ाना ।  


-त्रिलोकी मोहन पुरोहित राजसमंद। 

Friday, 20 December 2013

प्रतिक्रिया

धरती के जिस टुकड़े पर
नहीं होता है
हमारी देवियों और भद्रपुरुषों का सम्मान,
तब ऐसी स्थिति में वहाँ
कुछ भी उचित नहीं है हमारे देश के लिए।

वह धरती का टुकड़ा
निरा अंध और सवेदनहीन जैसे नगरसेठ
जिसे मतलब है अपने से
अपने ही हित से ।
ऐसे में उस नगरसेठ से
मान-सम्मान की करना आशा
व्यर्थ हुआ करती है ।
उस से अपने स्वत्व की याचना करना
अपनी संस्कृति के खिलाफ जाती है ,
तब अपनी संस्कृति
चिल्ला-चिल्ला कर कहती है-
पुत्रों ! संगठित प्रतिक्रिया ही है इस का समाधान ।

प्रतिक्रिया से समझौता करना
उचित नहीं हुआ करता है
की गयी प्रतिक्रिया को अनदेखा करना
उस से भी अधिक घातक हुआ करता है,
जैसे रूज़ग्रस्त तन
अपनी पीड़ा के विरोध में
कराह कर प्रतिक्रिया दर्ज करता है ,
कराह में उत्पन्न आर्तनाद स्वरूप प्रतिक्रिया को
अनदेखा करना मृत्यु को
मुक्त निमंत्रण देना होता है ।

प्रतिक्रिया सिहासन से वीथी-वीथी तक होगी
तभी नगरसेठ सा
वह भ्रमित अहंकारी अमरीका समझेगा
किसी देश की संस्कृति का शुचि विधान ।
नहीं हुई ठोस प्रतिक्रिया तब
फिर-फिर कर होगी पुनरावृत्ति ,
अपमानों की काली शृंखला की ।

क्या तुम मरे हुए से हो ?
यदि नहीं तो उचित समय पर
उचित प्रतिक्रिया दर्ज करना भी तो है राष्ट्रीयता ।

स्वस्थ देश के स्वस्थ विकास के लिए
प्रतिक्रिया है अत्यावश्यक सी
यह प्रतिक्रिया ही हमें लौटाती है –
हमारा स्वत्व और सम्मान ।
कविता तुम चुप मत होना ,
तुम्हें तो हर कोई सुनता है ,
वह अपमानित जन हो
या नगरसेठ या अमरीका । 

Wednesday, 27 November 2013

संधान

लिजलिजी भावनाओं से
पैर पूरी तरह 
जम गए हैं
जैसे–जैसे हिलता है
उतर जाता 
बहुत गहरे
जैसे किसी 
सूनी जगह के
भयानक दलदल में
उतरता चला जाता
कोई 
निरीह चोपाया।

भावनाओं के इस 
लिजलिजे खेल में
जो भी उतरा
कभी नहीं जीता
वह छला गया
जैसे छला जाता है
वेणुवादन के
मधुर नाद में
कोई निरीह कुरंग
जिसकी प्रतीक्षा
कर रहा संधान ।

त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमंद (राज॰)
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Tuesday, 8 October 2013

कुछ नया होने को है

मुर्दनी माहोल में
सरगोशियां होने लगे
जब धुंआ यकायक भर उठे
तब मान लेना
कुछ नया होने को है।

नित नए संत्रास से
वातावरण गर्माने लगे
जब धरा रह-रह जल उठे
तब जान लेना
कुछ यहाँ होने को है।

जिंदगी की हाट में
श्वांस महँगी होने लगे
जब मुट्ठियाँ कसने लगे
तब देख लेना
कुछ उलट होने को है।

मृत्तिका के सृजन से
सुर्ख सूरज तपने लगे
जब धरा पाटल सी लगे
तब कह लेना
उत्सर्ग ही होने को है।

कुछ नए की चाह में
सब हव्य ही होने लगे
जब हवन खुद होने लगे
तब सीख लेना
व्यर्थ सब जलने को है।

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द। 

Saturday, 21 September 2013

सच पूछो तो बात अलग है।।

कोरे कागज़  
काली स्याही जब शब्दों से 
खरी बात कह आग लगाती   
सच पूछो तो
बात अलग है।
सच पूछो तो
बात अलग है।। 

पुष्पित उपवन  ,
अपने माथे अंगारों से  
पुष्प सजा विद्रोह दिखाता 
शपथ से कहता
आग अलग है।
सच पूछो तो
बात अलग है।। 

जब हंसों ने
मुक्ताओं का मोह छोड़ के 
पाषाणों को राग सुनाया 
ज़रा कान दो
राग अलग है।
सच पूछो तो
बात अलग है।। 

अलमस्तों ने
प्राण हथेली पल में रख कर 
प्राणों को निज देश पे वारा 
सुर्ख धरा का
भाव अलग है।
सच पूछो तो
बात अलग है।।  

शव सा रह के 
कब तक शोणित व्यर्थ करेगा
ज़रा कपोलों पर शोणित मल
दीवानों का
फाग अलग है।
सच पूछो तो
बात अलग है।। 

इतिहासों ने
उसे सहेजा जो लीक छोड़ के   
आँख मिलाने  चला काल से 
यह जीवन का 
भाग अलग है।
सच पूछो तो
बात अलग है।।  

-त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द ( राजस्थान ) 

Sunday, 15 September 2013

राम तेरे वंदन से , बैठा रहा कौन यहाँ ,
मैं भी गति पा कर के , गढ़ चढ़ जाउंगा.
राम नाम गान सुन , आसन जमाती रमा ,
राम गान बल पर , अर्थ गह जाउंगा.
क्षण-क्षण अघ चढ़ , भार चढ़े जाता यहाँ ,
राम की कृपा से अब , पुण्य-पथ जाउंगा.
नाम मात्र लेने से ही , वैखरी मचल उठे ,
रसहीन हो कर भी , काव्य रच जाउंगा.

प्रभु राम विनती है , सुनिये विनय मम ,
प्रभु के भरोसे मैंने , आज भंग खाई जो.
सुधि जन वृन्द मध्य , बैठे कई कवि-वर,
सब मध्य रचनी जो , राम कविताई जो.
राम कथ्य विविध है , विविध चरित्र वहां,
रस के रसाल सम , छंद मनोहारी जो.
मांगता त्रिलोकी अब , दया कर दीजिए ,
सुन्दर कविता रूप , रस में रचाई जो.

राम का मधुर रूप ,सीता सह शोभता हैं,
गजानन आकर के , दर्शन कराइए .
आसन विराज कर , गणपति महाराज,
रिद्धि-सिद्धि-बुद्धि सह , काव्य को रचाइए .
भगवती भारती भी , अब शीघ्र आ कर के ,
राम-काव्य रचन में , स्वर भर जाइए .
राम कथा पारावार , जननी पीयूष सम ,
बालक अबोध तव , पीयूष पिलाइए.

नित्य रत रहते हैं , सरस सृजन हेतु ,
सरस सृजन हेतु , जगत प्रमाण है.
जगत उदार हेतु , दिव्य-काव्य रच दिए ,
दिव्य काव्य-दर्शन में , वेद ही प्रमाण है.
सृजन के मार्ग हेतु , ऋत सत्य साथ कर ,
सृष्टि का सृजन किया , भारती प्रमाण है.
कविवर प्रजापति , बार-बार वंदन है,
प्रतिनिधि मात्र बनूँ , रचना प्रमाण है .

ममता की निधि आप , मां भवानी भगवती ,
बुद्धि का प्रवाह रहे , ऐसा वर दीजिए .
बुद्धि सह श्रद्धा रहे , श्रद्धा सह शक्ति रहे ,
शक्ति में विनय रहे , ऐसा वर दीजिए.
राम गुण गान रहे , लोक का निर्माण रहे,
रावण विध्वंस रहे , ऐसा वर दीजिए.
राम का विरुद रहे , वर्तमान साथ रहे ,
लेखनी प्रबल रहे , ऐसा वर दीजिए .

ऊँचे नग वास करे , डमरू निनाद करे ,
भस्म अंगराग करे ,वैराग्य के धाम हैं.
मृग चर्म वेष करे , नाग कंठ हार करे,
बिल्व अनुराग करे , मंगल के धाम हैं.
देव शिव गान करे , नर शिव जाप करे,
सर्वत्र संहार करे , कलाओं के धाम हैं.
भवानी को साथ करे , अगुण-सगुण करे,
भोलेनाथ कृपा करें , आनंद के धाम हैं.


- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.
भाग्य के भरोसे कभी , कर्मशील नहीं रहे ,
                       पतवार लिए हाथ , लड़ लेते धार से .
धूम्र देख होते खड़े , ज्वाल की तरफ बढे ,
                       चिंता नहीं कौन साथ , खेल जाते आग से.
भाग्य के भरोसे बैठ , गाते गीत भाग्य के हैं ,
                       काल के बंधन बंध , मारे जाते काल से .
कर्मवीर जगत में , नभ के सितारे से हैं ,
                       धरा उन की रही है , वे हुए प्रताप से.

जो निठल्ले ही रहे हैं , खाते रहे सोते रहे ,
                       दिवस को व्यर्थ किया , व्यर्थ के प्रलाप से .
वे निठल्ले चीखते हैं , दस दोष देखते हैं ,
                       देश को वे हीन कहे , व्यर्थ के विलाप में .
कर्मवीर सदा चले , नहीं देखे धूप-छाँव ,
                       सृजन को देखते हैं , देश के विकास में .
देश पे विपत देख , कर्मवीर वरवीर ,
                       असि धार दौड़ पड़े , सिंह से प्रताप से.

दौड़-दौड़ अरि कहें , आ गये प्रताप यहाँ ,
                       मार रहे काट रहे , हम को बचाइए .
झुण्ड-रूप दे कर के  , भेज दिए राणा ओर ,
                       जोड़ हाथ कहे झुण्ड  , हमें न कटाइए .
रुदन में अरि कहे , हाय अल्ला कहाँ फंसे ,
                       मेवाड़ के चंगुल से , हम को निकालिए .
कहाँ छिप गये यहाँ , अकबर मानसिंह ,
                       रूद्र सा प्रताप दिखे , कोई तो बचाइए .

मेवाड़ की ललनाएं , सजन से कह रही ,
                       देशहित भीड़ जाओ , अकबरी दल से .
हल्दी सम हल्दी घाटी , रक्त में नहाई हुई ,
                       लाल-पीली हो रही है , अकबरी दल से .
प्रिय घर लौटें तभी  , अरि की विदाई हो ,
                       लड़-लड़ मर जाना , अकबरी दल से .
प्रताप मेवाड़ सा है , मेवाड़ प्रताप सा है ,
                       दो-दो हाथ कर आओ , अकबरी दल से .

देख-देख तुरंग को , रण ही ठिठक गया ,
                       हय है ये हय सा या , विद्युत का मोद है .
इस क्षण यहाँ रहा , उस क्षण वहां रहा ,
                       चंचल-चपल अश्व , शक्ति भरा श्रोत है .
अरि दल मध्य अश्व , भर-भर चौकड़ियाँ ,
                       अरि को छकाता चले , कौशल का कोष है ,
अश्व यह चेटक है , प्रताप हैं अश्वपति  ,
                       रण में ही मिले मानो , गति और शौर्य हैं.

त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द। 

Saturday, 14 September 2013

कबीर की तरह

चीख और चिल्लाहट में
राग बहुत बेसुरा है
फिर कहोगे -
मुझे किसी ने सुना नहीं ॰
लोग तुले हैं
अपनी जेबों को टटोलने में
और
घर के राशन-पानी की
सूची को पूरी करने में
वे बहुत व्यस्त हैं
संध्या के सूरज की तरह
अपनी अस्मिता के लिए ॰

तुम को अपनी
कविता की पड़ी है
जिस में किसी
अप्रतिम सौंदर्य की
देह यष्टि का
उस के रसीले होठों का
कटाक्ष मारती आँखों का
उभरते हुए अंगों का
जिक्र भर है
तुम्हारी आँखों का चश्मा
बहुत रंगीन लगता है ॰

तुम्हारा पूरा ध्यान
अपने शब्दों की
जादूगरी पर है
जिस के लिए
तुम ने रची है
यह मायावी रचना
"वह" किसी इन्द्रजाल से
मुक्त होने के लिए
छटपटा रहा है ,
कितना अच्छा होता
तेरी रचना का स्वर भी
इंद्रजाल को तोड़ने में
सार्थक होता
तब
संगत होती
स्वर होता
और
इंद्रजाल के विरुद्ध
दिल को छूने वाला
कबीर की तरह
संगत लिए गान होता॰

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमंद ( राज )

Monday, 12 August 2013

दो छोटी कविताएँ


(१)

जिसे कोमल मान कर ,
रोंद रहे हो ,
शायद तुम को अभिमान है ,
तुम हो बहुत कठोर ,
बहुत मजबूत ,
यह भ्रम है तुम्हारा ,
पानी से हमेशा ही ,
पत्थर कटे हैं ,
और
कटे भी तो ऐसे कटे ,
वे रेत हो गए।

(२)
पानी काटता ही नहीं ,
जोड़ता भी है ,
रेत की परत दर परत ,
जोड़-जोड़ कर ,
कितने ही द्वीप बना दिए ,
पानी कोमल जो है ,
अब तुम ही बताओ ,
स्त्रियों को ले कर ,
तुम्हारे विचारों पर ,
चढ़ा काला धुंआ ,
धीरे-धीरे ही सही ,
छंट रहा होगा।


-त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द ( राज.)

Tuesday, 30 July 2013

जिज्ञासा

कहने को आँखे खुली है ,
पर ,
तुम ने देखा नहीं ,
नहीं करते प्रतिक्रिया ,
इस अजीबोगरीब ,
आचरण से ,
मितली आ रही है .

एक बात पूछूं ,
नाराज मत हॉना ,
बस ,
मेरी जिज्ञासा है ,
शमन करें ,
बहुत भला होगा ,
ऐसे हालातों में ,
ज़िंदा भी हैं ,
या ,
बिल्कुल मरे हुए .


-त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द (राज.)

Sunday, 7 July 2013

बंद कमरों में .

बंद कमरों में कभी ,
तस्वीर बदली है ,
बदलना चाहते हो ,
वर्तमान की मुद्राओं को ,
ज़रा बाहर आ कर ,
पूरे दम के साथ ,
एक लम्बी ,
सांस भर कर देखो ,
हवा में कितनी नमी ,
कितनी गिर्दी या ,
कितनी गर्मी भरी हुई है ,
तब कहीं जाकर ,
तस्वीर बदलेगी .

ज़रा मिट्टी की ,
सुनना सिसकियाँ ,
जो बंद कमरों में ,
तुम्हारे ,
मानसिक विलास की ,
लिजलिजी दुर्गन्ध की ,
घुटन से फूट जाती हैं .
यही मिट्टी ,
जब भी मरती ,
कितने ही मानसिक विलासी ,
इस में क्षार होते हैं .

जब बंद कमरों में ,
बदलाव की बातें ,
करी जाती ,
जैसे अभी ही उत्सर्ग होगा
और ,
बंद कमरों की दीवारें ,
साक्ष्य बनकर प्रेरणा देगी ,
परन्तु ,
बंद कमरों में फूटे ,
असंतोष के स्वर ,
पुरस्कारों की होड़ में ,
कतारबद्ध देखे जाते ,
तब ,
क्षोभ से भर जाती हैं ,
छातियों से रिसती ,
पसीने की श्वेत धाराएं .
हाय ! ऐसा संघर्ष का ,
बौना रूप भी होगा ,
जिसे देख कर आँखें ,
धरती में गड़ी जाती .


त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द ( राज.) 

बहुत जद्दोजहद है

तुम्हारे लिए प्यार के 
मायने क्या हैं ?
मैं इस बहस में ,
कभी शामिल नहीं हूँ .
मेरे लिए प्यार ,
शाख पर लरजती हुई ,
कोमल पत्ती की तरह है ,
जो कि ,
शाख पर लग कर ,
खुद जीती है ,
और पेड़ में ,
प्राणों का संचार करती है .

प्यार कोई चिड़िया नहीं ,
नहीं वह कोई ,
खूबसूरत दस्तकारी .
प्यार कोई वस्तु नहीं ,
नहीं वह कोई ,
रसीली कलमकारी .
प्यार मधुर भावनाओं का ,
जीवंत स्पंदन ,
स्वयं चलता है ,
सुकोमल दिल के साथ ,
और,
कारवां जीवन का ,
हरदम साथ लिए चलता है . 

उलझ कर रह गया है ,
जीवन का अभिमन्यु ,
सत्ता के चक्रव्यूह में ,
फिर से दोहराया जाएगा ,
वही पौराणिक मिथक ,
जहां अंधों से दृष्टि वाले ,
अधिकारों को मांगेंगे ,
ऐसे में प्यार पर बहस ,
ठीक नहीं लगती .
ना जाने किस मोड़ पर ,
मैं प्यार को ,
साकार देखूंगा ,
अभी तो बहुत जद्दोजहद है ,
जीवन के समर में .


-त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Friday, 31 May 2013

प्रताप मेवाड़ सा है , मेवाड़ प्रताप सा है

भाग्य के भरोसे कभी , कर्मशील नहीं रहे ,
                       पतवार लिए हाथ , लड़ लेते धार से .
धूम्र देख होते खड़े , ज्वाल की तरफ बढे ,
                       चिंता नहीं कौन साथ , खेल जाते आग से.
भाग्य के भरोसे बैठ , गाते गीत भाग्य के हैं ,
                       काल के बंधन बंध , मारे जाते काल से .
कर्मवीर जगत में , नभ के सितारे से हैं ,
                       धरा उन की रही है , वे हुए प्रताप से.

जो निठल्ले ही रहे हैं , खाते रहे सोते रहे ,
                       दिवस को व्यर्थ किया , व्यर्थ के प्रलाप से .
वे निठल्ले चीखते हैं , दस दोष देखते हैं ,
                       देश को वे हीन कहे , व्यर्थ के विलाप में .
कर्मवीर सदा चले , नहीं देखे धूप-छाँव ,
                       सृजन को देखते हैं , देश के विकास में .
देश पे विपत देख , कर्मवीर वरवीर ,
                       असि धार दौड़ पड़े , सिंह से प्रताप से.

दौड़-दौड़ अरि कहें , आ गये प्रताप यहाँ ,
                       मार रहे काट रहे , हम को बचाइए .
झुण्ड-रूप दे कर के  , भेज दिए राणा ओर ,
                       जोड़ हाथ कहे झुण्ड  , हमें न कटाइए .
रुदन में अरि कहे , हाय अल्ला कहाँ फंसे ,
                       मेवाड़ के चंगुल से , हम को निकालिए .
कहाँ छिप गये यहाँ , अकबर मानसिंह ,
                       रूद्र सा प्रताप दिखे , कोई तो बचाइए .

मेवाड़ की ललनाएं , सजन से कह रही ,
                       देशहित भीड़ जाओ , अकबरी दल से .
हल्दी सम हल्दी घाटी , रक्त में नहाई हुई ,
                       लाल-पीली हो रही है , अकबरी दल से .
प्रिय घर लौटें तभी  , अरि की विदाई हो ,
                       लड़-लड़ मर जाना , अकबरी दल से .
प्रताप मेवाड़ सा है , मेवाड़ प्रताप सा है ,
                       दो-दो हाथ कर आओ , अकबरी दल से .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Monday, 27 May 2013

मृत्यु के नग्न उपासक

गूँज गये जंगल-शहर
बंदूकों की गरज में
और ,
उस दरमियान ,
सहमा तो केवल ,
मासूम आदमी .

हाँ , वह आदमी सहमा ,
जो रोज रोटी की,
जुगत में ,
ना जाने कितनी बार ,
जमीन में गड़ जाता है .
हाँ , वह आदमी सहमा ,
जो रोज अपनी लाज को ,
बचाने के चक्कर में ,
ना जाने कितनी बार ,
दुत्कारा जाता है ,
हाँ , वह आदमी सहमा ,
जो रातों की भयानक ,
सांय-सांय करती ,
काली वेला में ,
अपना सर छिपा लेने के ,
असफल प्रयासों में ,
ना जाने कितनी बार ,
धवल संस्थाओं से
नोच लिया जाता है .

गूँज गयी काली बंदूकें ,
भीषण गर्जन करती ,
लोकतंत्र में ,
साथ उसी के ,
छांट गयी ,
गर्म रक्त के फव्वारे ,
दृश्य बहुत निर्मम और विभत्स,
जैसे मरघट जाग गया हो ,
रक्त-मांस से सने हुए चिथड़े ,
इधर-उधर फैले-फैले ,
शव बिखरे हुए धरा पर ,
मानो कहते हैं ,
उन काले हत्यारे की ,
रक्तिम निर्मम ललकारों को .

जीवन का धवल पक्ष ,
हत्यारे नहीं जानते ,
शायद धवल रोशनी से ,
उनका परिचय कहाँ ?
जीवन के सन्देश संवाहक ,
हत्यारे नहीं जानते ,
शायद सन्देश संवाहक को ,
ले जाने वाले पथ से ,
शायद उनका परिचय हुआ कहाँ ?
जीवन की संस्कृति के सरगम को ,
हत्यारे नहीं जानते ,
शायद जीवन संस्कृति के सरगम को ,
हत्यारों की श्रुति ने सुना कहाँ ?
उनका परिचय केवल ,
बीहड़ और अंधियारे से है ,
काली-काली बंदूकों से है ,
हत्याओं और मरघट से हैं ,
वे मृत्यु के नग्न उपासक ,
जीवन का आराधन करना ,
हत्यारों की प्रवृत्ति का भाग नहीं है .

-त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Saturday, 25 May 2013

गांधारी और धृतराष्ट्र से हो गये

कंधे से कंधा सट गया ,
परन्तु अभी तक ,
समझ में नहीं आया ,
आखिर कर ,
कौन क्या चाहता है ?

अब वे चिल्लाना बंद करें ,
तो कितना सुखद हो जाए ,
तनिक देर ,
कहीं बिना शोरगुल की ,
नम जगह बैठ कर
मैं परिस्थितियों को ,
ठीक-ठीक समझ सकूं .

न जाने क्यूं
कुछ लोग सर पर आकर ,
धमक जाते हैं ?
हाथ में झंडा लिए ,
बन बैठते हैं मसीहा,
शोरगुल हो-हल्ला ,
भीड़-भगदड़,
अखबारों के शीर्ष पर ,
छपती कुछ घटनाएँ ,
आकाशवाणी - दूरदर्शन पर .,
चीखती हुई ,
परावर्तन के सह कुछ बातें .

नयी-नयी बातों के ,
वजन में ,
कुचल जाती हैं ,
वे पुरानी बातें ,
जिन्हें जानना ,
जरूरी था .
शोर-गुल , भीड़-भक्का ,
आपाधापी और संशय में ,
गर्दी इतनी उड़ती है ,
साँसों को जबरन ,
घटकना भी दुष्कर है .

सभी के सभी उत्सुक ,
किसी नये
घटनाक्रम के लिए ,
जिस से कि ,
दिवस कुछ ,
रोचक तरीके से निकले ,
अब हम ,
आदी हो गए हैं ,
केवल घटनाएँ सुनने को,
सब के सब ,
गांधारी और धृतराष्ट्र से हो गये ,
जब कि बनना था ,
कृष्णार्जुन सभी को .

-त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द (राज.)

Wednesday, 22 May 2013

आपस में ही परिचय कर लेते हैं

मैं जिसे खोजने निकला ,
वह तुम हो ,
जिसे मैं पहले से ही जानता हूँ ,
वह भी तुम हो .

फिर यह अपरिचय क्यों ?
तुम कह सकते हो ,
हम पहले कभी मिले नहीं ,
हमने कभी एक दूसरे को जाना नहीं .........

क्या यह सही है ?
जब कि तुम्हारा और मेरा स्वामी एक ही है .
यदि हाँ ,
फिर यह हमारी भूल है ,
हम आपस में नहीं मिले .

हमें स्वामी के सम्मुख खडा होना होगा ,
वहां हमसे सवाल और जवाब होंगे .
क्या हम उनके आगे खड़े रह पायेंगे ?
तो फिर...........

हम एक काम कर लेते हैं,
अपरिचय समाप्त कर देते हैं ,
और ,
आपस में ही परिचय कर लेते हैं ,
अच्छे बच्चों की तरह.

त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द ( राज.)

हम कितने लाचार हो गए

रात के व्यवहार को ,
हम सुबह भूल जाते हैं ,
और ,
आज दिन के  व्यवहार को ,
कल तक भूल जाते हैं ,
उस के बाद ,
फिर वही , रोजमर्रा की जिन्दगी ,
हम कितने सुविधावादी हो गए .

बोलना था हमें ,
वह बोल दिया ,
क्या बोला ? उस से ,
हमें क्या लेना-देना ?
हमारे बोल पर ,
कोई मर मिटा ,
या ,
सर धुन कर रह गया ,
या,
आँखों में आंसुओं को ,
अटका कर रहा गया ,
उस सब से हमें क्या ?
हम भूल जाते हैं ,
हमारे शब्द-भेदी बाण ,
और उस के बाद ,
फिर सक्रीय हो जाते हैं ,
हमारे भाषाई दांव-पेंच ,
हम कितने व्यावसायिक हो गए.

कब हम किस के गले मिलेंगे ,
या ,
उस के सामने आते ही ,
नाक-भोंह सिकोड़ेंगे ?
हम खुद कह नहीं सकते ,
पता नहीं , किस क्षण ,
सामने वाले के हाथ से ,
हमारे पास , हमारे मतलब का ,
सामान हाथ लग जाए ,
या ,
उस के मतलब का सामान ,
हमारे हाथ से , खिसक जाए ,
इस हेतु ,
हम अभिवादन से ही ,
व्यवहार के क्षेत्र में ,
फूँक-फूँक कर कदम रखते हैं ,
सच है ना ,
हम कितने अवसरवादी हो गए .

स्त्री ..........स्वतंत्रता की आवाजें लगा रही है ,
वह स्वतंत्रता की चाह में ,
भागती है , खांसती है ,
लड़ती है , ललचती है,
रहस्यमय बनती चली जाती है ,
दोसरी तरफ पुरुष...........
पिछड़े अगड़ों को ,
मिटटी में मिलाने को कटिबद्ध हैं ,
अगड़े पिछड़ों को ,
पीछे ही धकेलने में मशगूल हैं ,
एक जात दूसरी जात को ,
एकदम पीस देना चाहती है ,
हर कोई सामने वाले का ,
कंधा इस्तेमाल करने को व्यस्त है ,
एक दूसरो सीढ़ी बनाने में दत्त चित्त है
बस , ..............आदमी जहां भी है ,
वह भोंचक्का सा है ,
उस के सामने ,
बाढ़ और सूखा है,
दंगा और आग है,
भूख और लाचारी है,
जोर और जबरदस्ती है ,
इस माहोल में ,
हम कितने लाचार हो गए . 

Tuesday, 21 May 2013

हेसियत नहीं रखते .


एक दिन सभी का ,
ध्येय एक था ,
एक ही मार्ग था ,
और ,
प्राणों से प्यारा ,
देश एक था ,
तब हम ,
सवा लाख के थे ,
आज ,
बदल गया हमारा ध्येय ,
बदल गया मार्ग ,
और ,
देश बाँट लिया गया है ,
अब हम ,
कानी कोडी की भी ,
हेसियत नहीं रखते .

अविश्वास और प्रपंच ने ,
हमें बहुत दूर ,
खडा कर दिया है ,
अब हम इकाई के रूप में ,
गिने और तोड़े जा सकते हैं ,
जैसे गिनी जा सकती है ,
आसानी से
भेड़-बकरियां
और
तोड़े जा सकते हैं
बिखरे हुए तिनके ,
अनायास ही ,
आखिर कर हमने,
खो दी आत्म-संगठन की ,
अमोघ शक्ति .

सत्ता-शक्ति और स्वत्त्व ,
निजी इच्छाओं में ,
इस तरह से ,
रच-बस गए हैं कि ,
देश-संस्कृति-स्वाभिमान ,
हो गए हैं गौण  ,
ये सत्ता-शक्ति और स्वत्त्व ,
के तल में ,
ऐसे दब गए हैं,
जैसे भरभरा कर गिरे ,
बहुमंजिले भवन के ,
मलबे में ,
दब गया हो कोई ,
माँ-बाप और बच्चों सहित,
हंसता-खेलता परिवार.

तुम्हारी छीना-झपटी ,
और ,
एक दूसरे को ,
विवादों में उलझाने की ,
पैशाचिक वृत्ति ने ,
हमारी सारी ऊर्जा ,
सोख ली है ,
जैसे जेठ में तपता रेगिस्तान ,
सोख लेता है पानी ,
जो छिपा बैठा था ,
किसी प्यासे की ,
प्यास बुझाने को ,
धरती की कोख में ,
ऐसे माहोल में ,
सीमा पार से ,
चले आते हैं ,
आदमखोर भेडिये ,
क्योंकि उन्हें भी चाहिए,
नर्म-गर्म गोश्त ,
कुछ जुगाली के लिए.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द ( राज .)

Sunday, 19 May 2013

वाकई , मैं पागल हूँ .


तुम ने मुझ को ,
पागल कहा ,
ठीक ही तो कहा ,
इस में गलत क्या है ?
तुम मेरा यकीन करो ,
मुझे तुम से ,
कोई शिकायत भी नहीं ,
वाकई , मैं पागल हूँ .

तुम कह चले ,
अब कभी लौट कर ,
तुम आओगे नहीं ,
फिर भी मुझे तुम्हारी ,
प्रतीक्षा रहती है ,
आने-जाने वालों से ,
तुम्हारी खोज-खबर लेता हूँ ,
वाकई , मैं पागल हूँ .

मेरे शरीर पर अब भी हैं ,
तुम्हारे नाखूनों के व्रण-चिह्न ,
जिन से कभी रिस कर ,
टपक गया था ,
मेरा सिन्दूरी लहू ,
और,
तुम्हारे नाखून ,
रक्तिम आभ लिए लहू में ,
दिप-दिप कर ,
दमक कर रह गये थे ,
मैं अब भी तुम से प्राप्त ,
व्रण-चिह्नों में ,
तुम को अनुभव करता हूँ ,
वाकई , मैं पागल हूँ .

कभी लिखी थी ,
जो कवितायें तुम को ले कर ,
जिन पर पाटल रख तुम को सौंपा था ,
तुम ने उन कविता-पत्रों को ,
पाटल सहित पटक धरा पर ,
अपने पदत्राण से कुचला था ,
वे अब भी वैसी की वैसी ,
पड़ी धरा पर सुबक रही हैं ,
मैं हूँ कि ,
तुम को ले कर फिर से ,
इक नयी कविता ,
लिखने बैठ गया हूँ ,
तुम को पाने की ,
अदम्य लालसा में ,
वाकई , मैं पागल हूँ .

-त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Thursday, 16 May 2013

तुम्हारे कार्य , कार्य नहीं


तुम्हारे कार्य , कार्य नहीं ,
भोंडी हरकते हैं ,
सामजिक व्यक्ति ,
छिप-छिप , अकेले-अकेले ,
रहता नहीं ,
अपने सुख-दुःख ,
बांटता है सभी के मध्य ,
यह तय है -
तुम कुछ तो हो सकते हो ,
परन्तु ,
सामजिक नहीं हो सकते .

जिन्होंने भी ,
सामजिक सरोकारों को ,
अनुपयोगी माना ,
या ,
जानबूझ कर त्याज्य बनाया ,
उन्हें देखा गया है ,
प्यार की भीख मांगते ,
और ,
तिल-तिल मरते ,
जैसे रेगिस्तान में ,
मर जाते हैं ,
जंगी पहाड़ ,
आखिर उस ने ,
जिंदगी भर जिया था ,
भयानक रेगिस्तान .

तुम्हें अभी मेरी बात ,
समझ में नहीं आएगी ,
अभी तुम पर ,
चढ़ा हुआ है ,
कुलीनता का चश्मा ,
और ,
बंधी हुई है आँखों पर,
करारे नोटों की पट्टी ,
यह सब उतारने ,
एक दिन जाहिलों की भीड़ ,
तुम्हारे द्वार पर जुटेगी ,
वही भीड़ ,
पोंछेगी तुम्हारे आंसुओं की झड़ी ,
जो बह रही होगी ,
नाजुक समय की मार से ,
जैसे बहता है पाताल तोड़ कुआ .

बहुत भयावह दृश्य
मेरे सामने नाचता है ,
एक बूढा रोया था ,
ठीक मेरे सामने ,
क्योंकि उस ने ,
हमेशा से ही बिताई थी ,
अकेलेपन की जिंदगी ,
और ,
ठोकर मारी थी ,
सामाजिक सरोकारों के ,
मधुर झरने को .
फलस्वरूप -
उस के आत्मज ,
जी रहे हैं ,
सरोकारों से रहित जिंदगी ,
उन्होंने जिंदगी का ,
यही रूप देखा था ,
और ,
अब वह बूढा ,
पश्चाताप की आग में जलता हुआ .
अकेले-अकेले डोलता है ,
किसी रेगिस्तानी बवंडर की तरह .

                          -त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Wednesday, 15 May 2013

सजे-धजे हुए लोग


सजे-धजे हुए लोग ,
चीखते हैं ,
अन्दर ही अन्दर .
उनके मकान ,
बिना ही धुंआ किये ,
जलते हैं निःशब्द.

धवल पोशाक लिए  ,
दलदल में धंसे-धंसे,
लथपथ सने हुए ,
हंसते हुए लोग .
उन की हंसी के नीचे ,
कहीं दबी-दबी है रुलाई ,
और बहुत गहरे ,
उदासी ने उन्हें मथ डाला है ,
जैसे मथ डालता है
पागल गज ,
नम्र-कोमल पालकों को  .

कुछ भी संभव है ,
भगदड़ और भीड़ में,
किसी सुखद की ,
आशा करना व्यर्थ है .
सब कुछ शांत ,
परन्तु उस के तल में ,
छिपा हुआ है कोलाहल ,
जैसे समुद्र के ऊपर-ऊपर ,
पानी ठहरा-ठहरा हुआ ,
और ,
अन्दर ही अन्दर ,
दौड़ती है धाराएं ,
और फूट पड़ते हैं ,
भयंकर ज्वालामुखी ,
प्रगति के नाम भगदड़ ही ,
हिस्से में आई है .

प्रगति और विकास के ,
चक्के घूम-घूम ,
भर देते हैं कोष ,
लेकिन मन मधुकर की तरह,
अतृप्ति के कूप में ,
अन्दर ही अन्दर ,
धंसे चले जाता है ,
तब उस की तृप्ति के लिए ,
प्रयोजनरत आज का लोक ,
किसी गहरे दल में ,
फंसे चले जाता है ,
क्या यही प्रगति की नियति है ?
यदि हाँ...................................
तब , इस प्रगति के चक्के
जहां हैं वहीँ थम जाए .

त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Friday, 10 May 2013

महाभारत ने , एक युग लील लिया था .


मुझे डर है
किसी अनहोनी का
तुम फिर भी
सोये हो .
सुनते ही नहीं ,
वे आवाजे ,
जो उठी है ,
प्रतिक्रिया में ,
जो तुम्हारे ,
खिलाफ जाती हैं .

शायद ,
तुम सोचते होंगे ,
इन लूले-लंगड़े
और ,
बेदम अपाहिजों की ,
आवाजों से ,
क्या फर्क पड़ता है ?
परन्तु ,
सच यह है मित्र ,
इन अपाहिजों की ,
चित्कारें ही ,
पूरा का पूरा ,
युग लील जाती है ,
फिर तुम भी तो ,
इन जैसे ही तो हो .

कभी एक शासक ,
द्रुपद ने ,
दीन द्विज द्रोण का ,
उपहास उड़ाया था ,
और ,
उस के मैत्री भाव को ,
सत्ता के मद में ,
रोंदा था ,
द्रोण की प्रतिक्रिया में ,
द्रुपद श्वान की तरह ,
दुत्कारा गया था ,
वह भी तो एक कारण ,
महाभारत का बन गया था ,
तब ,
कुछ असमर्थों की प्रतिक्रिया ,
महाभारत ने  ,
एक युग लील लिया था .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द .

सद्भावना का मूल्य , कभी नहीं चुका .


सद्भावना का मूल्य ,
कभी नहीं चुका ,
वह बदले में ,
मांगती है सद्भावना .

जिंदगी हरहरा कर ,
बढ़ रही ,
किसी बेल की तरह .
रोज उस पर खिलती है ,
जीवंत संभावनाएं ,
मधुर फल की तरह .
सद्भावनाओं की ,
सहस्त्रधार के बल पर ही ,
यह संभव होता हुआ,
तुम ने भी ,
अनुभव किया होगा .

भटका हुआ भी ,
किसी सदाशा के बल ,
दिशा तलाशता है .
जब कोई दिशा ,
हाथ नहीं आती ,
तब सहज ही उस का ,
रुदन फूट जाता है .
वह जानता है ,
अरण्यरुदन व्यर्थ होता है ,
पर,
सद्भावनाओं के बल
श्रुति उसे ढूंढ ही लेगी
सदभावनाएँ उद्धारक होती है.

सद्भावनों के बल पर ही
आज श्वांसें गह रहे हैं
किसी कलावंत की तरह ही
जिंदगी को गढ़ रहे हैं
उसर भाव-भूमि पर
उगाई थी तुलसी
वह आज पनपती सी
दिखाई दे रही है
मित्रों !
प्राची में पनपती लाल किरणें
मांग में बिछे कुमकुम सी
सद्भावनाओं को भर रही है
अब उस को ही सहेजें .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Saturday, 27 April 2013

दिल एक बिरवा है


( मित्रों ! नमस्ते . यात्रा से पूर्व आप सभी के सम्मान में सादर प्रेषित . आशीर्वाद प्रदान करें . यह रचना आदरणीय डॉ गुरूजी बिंदुजी महाराज के साथ सम्मान्य जी .पी. पारिक साहब . प्रहलाद जी पारिक साहब , असीम जी , केदार नाथ जी , डॉ अन्नपूर्णा जी , अभिषेक जी , राजेश खंडेलवाल जी ,राजेश पुरोहित जी और दिव्या जी सहित सभी मित्रों को समर्पित  )



दिल को ,
बहुत समझाया
परन्तु ,
दिल है कि,
मानता नहीं ,
इसे अभी भी ,
प्यार की जरूरत है,
मानो दिल एक बिरवा है ,
और ,
प्यार है शीतल- मधुर पानी.

कितनी बार ,
दिल को ,
वैराग्य का लबादा पहनाया ,
कंठी-माला और सुमरनी में ,
आपान्मस्तक डुबोया ,
परन्तु ,
यह दिल ,
फिर-फिर लौट आता ,
तेरी उन मधुर स्मृतियों पर ,
तब बैचेन हुआ ,
तुझे ढूँढता हूँ यायावरी के साथ ,
और,
तू है कि ,
किसी अगोचर की तरह,
मेरी पहुँच से ,
दूर....दूर..... और ...दूर .

तेरी कलाओं का ,
और ,
तेरी क्षमताओं का ,
मैं कायल हूँ ,
मैं जितना दूर भागता हूँ ,
तू साये की तरह,
मेरे पीछे लगा रहता है ,
पास आता हूँ ,
हाथ नहीं लगता,
अब तुम्ही बताओ इसे क्या कहूं ?
तुम शिल्प में कला ,
भाषा में अभिव्यक्ति ,
सृजन में रस हो कर के ,
मेरे सामने ,
नव-नव रूप धरे ,
चले आते हो,
तब ,
चुप हुआ मेरा दिल ,
चीख उठता है आर्त स्वर में ,
शायद यही है इस की नियति .

प्यार के विविध रूप ,
हो सकते होंगे ,
मैं नहीं जानता ,
पर एक बात तय है,
उस का मूल उत्स एक ही है,
उस के बिना ,
कुछ भी संभव नहीं ,
हाँ .............सच ही है ,
उस के बिना ,
नहीं हो सकता सृजन ,
नहीं हो सकता पालन ,
नहीं हो सकता ध्वंस ............
मेरे प्यारे दिल ,
आज से तू मुक्त है ,
हाँ , मेरे बंधनों से मुक्त ,
जहां शिवत्व तुझे आमंत्रित करे,
चला भी जा ..........चला भी जा ,
किसी यायावर की तरह ,
( मुझे भी लगता है )
इसी में हमारा श्रेय निहित .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द .

Monday, 22 April 2013

विवश हो कर , रह गया है - शीर्ष अपना .


विवश हो कर , रह गया है
शीर्ष अपना .
घने कुहासे में ,फँस गया है
शीर्ष अपना .

नित्य रजनी की विदाई ,
हम कर रहे हैं .
नित्य दिन की वंदना भी ,
हम कर रहे हैं .
एक से ही दिवस आते ,
एक सी ही रातें बीत जाती .
परिवर्तनों के नाम पर ,सो रहा है
शीर्ष अपना .
विवश हो कर , रह गया है ,
शीर्ष अपना .

दिवस लाचारी में ढला जो ,
बस चीखता है .
रात में भय सना साया ही,
बस दीखता है .
विवश सी यह जिंदगी ,
भय से भरी ही बीत जाती .
संस्कृति के नाम पर ,खो रहा है ,
शीर्ष अपना .
विवश हो कर , रह गया है
शीर्ष अपना .

दुराचरण ही रिस रहा है ,
धमनियों से .
बस कालिख ही पुत रही है ,
चिमनियों से .
त्रासदी के सिल पर पड़ी ही ,
साँसे दम तोड़ जाती .
आचरण के नाम पर , सिर धुन रहा है ,
शीर्ष अपना.
विवश हो कर , रह गया है
शीर्ष अपना .


शुभ कृति ही मांगती है ,
बस सुकोमल जिंदगी .
फिर से कुछ ऐसा नया हो ,
खिले अंकुरित जिंदगी .
आशाओं को लिए धारा ,
दर्द पीछे छोड़ जाती .
सुकृति के नाम पर , अंक लिखता है ,
शीर्ष अपना .
विवश हो कर , रह गया है
शीर्ष अपना .

जब भी जागें होता सवेरा ,
जाग भी जाएँ सभी .
घायल चरण ही पंथ देते ,
पंथ गढ़ जाएँ सभी .
किसी गुडिया सी जिंदगी ,
करुण स्वर से पुकार जाती .
नवीनता के नाम पर , पुकारता है ,
शीर्ष अपना .
विवश हो कर , रह गया है
शीर्ष अपना .


- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द

किसी घायल कुरंग सा

अभावों से , रुदन ही नहीं ,
गीत भी ,निकल आते ,
वे गीत ,बहुत करुण हो कर ,
ह्रदय को बींध जाते ,
मानों कुरंग का ,
वेणुवादन के बहाने ,
संधान होता है .

श्याम वर्णी नव यौवना ,
बैठी हुई है फुटपाथ पर ऊंची जगह ,
जिस के अंक में ,
भार सा सद्यः प्रसूत शिशु ,
ओढ़े हुए है ,
भरी दुपहरी की धूप पीली,
उस के पार्श्व में सहम कर बैठा ताकता है ,
संभावित भविष्य सा ,
पञ्चवर्षी एक बालक ,
नंगी सड़क पर उस यौवना के लटकते
पैरों के पास सिमटती ,
किशोरी आत्मजा सिकुड़ी हुई ,
मां के हाथ फंसा ,इकतारे को ताकती है ,
और ,
गाती हुई मां के स्वरों में टेर देती है ,
यह देख कर -
कुछ हाथ जेबों में सरक कर ,
द्वद्व में उलझे हुए हैं ,
उन्हें भी तो मुक्त करना है .

कुछ देर में ही ,
चलते पथिक ठिठक कर ,
उनके आस-पास खड़े हो जाते हैं ,
भीड़ की भद्दी शक्ल में ,
कुछ लोग सिक्के उछालते हैं ,
कुछ वाह-वाह कर खड़े रहते,
कुछ मां और किशोरी को तोलते हैं,
सौन्दर्य के निकष पर ,
कुछ बौद्धिक पूछते हैं ,
करुण गीतों के उन गायकों को ,
कौन उन का है घराना ,
कौन उन का है गुरु ,
कौन सी है पद्धति ,
पर अभावों में प्रस्फुटित स्वर ,
यह कहे कैसे -
अभाव उनका है घराना ,
अभाव उनका है गुरु ,
अभाव उनकी है पद्धति ,
वे जानते है ,सभ्यों के इस लोक में ,
यह कहना बहुत बुरा है .
इसीलिए कह देते हैं -
जनाब आप की मुहब्बत ,
और ,
ईश्वर की कृपा का ही ,
यह सुफल है .

करुण गीतों को लिए ,
लोग गुनगुनाते चले जाते ,
या बहस करते हैं,
( इन्हें भी अवसर मिला होता ,
ये सितारे जमीं पर नहीं होते )
कुछ तात्कालिक योजना में उलझ जाते ,
कुछ शास्त्र और दर्शन के आधार पर ,
फुटपाथ की गायकी को तय करते ,
कुछ कोसते हैं उन को निठल्ले कह ,
कुछ कहते हैं ,
अरे! इस गायकी की आड़ में बहुत कुछ है ,
पर सभी इस बात से संतुष्ट हैं ,
गला और स्वर बहुत मधुर है ,
और बोल उन के ,
ह्रदय को बेधते हैं ,
मैं हूँ ...............
किसी घायल कुरंग सा ,
रुक सोचता हूँ फुटपाथ पर भी ,
अभावों से निपजती ,
कलाएं कितनी विवश है ,
ना जाने कौन से लोक से ,
इन के तारणहार आयेंगे.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Wednesday, 10 April 2013

विद्रोही स्वर हैं गीत सरीखे



चिड़िया तेरे विद्रोही स्वर हैं गीत सरीखे .
दायित्वों से सिंचित स्वर हैं गीत सरीखे .

घर ने तुझ को हांक दिया है ,
निर्दयता से .
निर्जन वन अस्तित्व बचाती ,
आतुरता से .

प्रतिक्रिया में स्वर सुनता हूँ गीत सरीखे .
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे .

घर-घर जा कर चीख रही है,
वातायन में.
अधिकारों को मांग रही है ,
निर्वासन में.

मुझ से सीधे संवाद बनाती गीत सरीखे.
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे .

सब ही निर्वासन भोग रहे हैं,
अपने घर में
अपरिचित से सब भागे जाते,
अपने घर से.

निर्वासित स्वर रामायण के गीत सरीखे.
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे .

जिस को लिए तू रोज गा रही,
वह अपनापन.
वह बे परवाह हुआ जाता है ,
वह पागलपन.

अंगारों से स्वर जागरण के गीत सरीखे.
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे.

चुप मत होना कभी दीवानी,
जीत हमारी.
सच्चे अर्थों में हम ही जीते,
जीत हमारी.

जिजीविषा के स्वर बोले वे गीत सरीखे.
मिट्टी के माधो से जन में वे प्राण सरीखे.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Tuesday, 9 April 2013

अस्तित्व की लड़ाई में


मेरी छोटी सी ,
सोन चिरैया ,
किस स्वर्ण पिंजर की .
स्वर्ण शलाकाओं से ,
लड़-भीड़ कर जख्मी होती हो ,
अपने अस्तित्व की लड़ाई में .

लो देखो-देखो ,
घायल तेरी चंचु ,
घायल तेरे कमनीय पक्ष ,
घायल तेरे नर्म-नर्म,
छोटे-छोटे पंजे ,
तन-मन सब घायल तेरा ,
अपने अस्तित्व की लड़ाई में .

मैं भी , तुम भी ,
भली प्रकार जानते हैं ,
स्वर्ण शलाकाएँ टूटे तो टूटे ,
पर ,
तेरी बड़ी सफलता है ,
स्वर्ण शलाकाएँ अब ,
तेरे चंचु और पंजो की मार से ,
कुछ विरल रेखाएं रखती हैं ,
ये तेरी प्रतिक्रिया का लेखा है ,
कल का सूरज दस्तक देता है ,
अब तेरे पिंजर के बाहर .
लगी रहो मेरी सोन चिरैया ,
अपने अस्तित्व की लड़ाई में .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Tuesday, 2 April 2013

आदमी छोटा है


इच्छाएं बड़ी-बड़ी आदमी छोटा है ,      
कैसे कहूं वह बड़ा आदमी छोटा है .      

वेदना को छांटने में व्रत है कर रहा ,
संकल्प हैं बड़े-बड़े आदमी छोटा है .

फंसता है आदमी धारा के प्रवाह में ,
मतवाली धारा में आदमी  छोटा है .

ख़ुशी और गम साथ-साथ पाले हुए ,
अभिनय हैं बड़े-बड़े आदमी छोटा है .

नज्मों औ गीतों में आदमी गाता है ,
संत्रास है सुरसा से आदमी छोटा है .

दीवारें बनती नहीं सुलग जाता घर ,
द्वंद्व मिलते बड़े-बड़े आदमी छोटा है .

पंजों के बल खडा आदमी थकता है ,
शेष कद हैं बड़े-बड़े आदमी छोटा है .

सर चढ़ी गठरी है अवसाद लिए हुए ,
गठरी हुई बड़ी-बड़ी आदमी छोटा है .

रोता क्यूं बावला बगुलों के बीच में ,
खुदा खुद गवाह है आदमी छोटा है .

काँप रहा संतुलन बैठा हुआ आदमी ,
भय-भूख भारी हुई आदमी छोटा है .

खींच के गुलेल को वह दिशा साध ले ,
जो दिशा खाली हुई आदमी छोटा है .

तुच्छ कहे साधन भी मौके पे भारी है,
छोड़ दिया मौका तो आदमी छोटा है .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

कल सवेरा जान कर मैं जी गया



एक प्याला पी गया जो पी गया
बस तेरा मैं नाम ले के जी गया

हर बार मुश्किलें तो आती रही
मुश्किलों को नाम तेरे जी गया

जख्म साकी दे गया तो दे गया
और पीड़ा नाम उस के जी गया

द्वार जो भी खुला वो रोता मिला .
दूसरों  को चुप  कराते जी गया .

पुष्टजन में कायदे मरियल मिले .
कायदों से रिक्त जग में जी गया .

कतरन लिये पेहरन बुनता रहा .
कतरनों को ओढ़ कर मैं जी गया .

होगी कोई वह इंद्रधनुषी जिंदगी .
जैसे-तैसे ये जिंदगी तो जी गया .

उस को दुआ दूं कि अब दूं बद्दुआ .
देख लो बदहाली में भी जी गया .

मुश्किलें अब उन की  ही बढ़ रही .
मैं तो वो नेमत समझ के जी गया .

उन को  जरूरी  हो  गया जानना .
उन से लगी आग कैसे जी गया ?

कर्म सारे करने थे वह  कर गये .
कल सवेरा जान कर मैं जी गया .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Saturday, 30 March 2013

पुष्प सृजन के सहकारी

तुम ने कभी सोचा भी है ,
जो है तुम्हारी ,
आत्मा का अंश ,
वह कितना ,
जी पा रहा है ,
या ,
जीने के लिए ,
करा रहा है जद्दोजहद .

जिन को सौंप दिया है ,
तुम ने अपने उद्यान का ,
महकता पुष्प ,
उन के साय में ,
वह खिलता है ,
या ,
खिलने के लिए ,
हाथ-पैर मार रहा है ?

तुम अव्वल दर्जे के,
गैरजिम्मेदार माली हो ,
जिस ने अपने खिलते ,
पुष्पों की सुध नहीं ली ,
जब भी मुर्झाता है पुष्प ,
अच्छे से समझ,
ओ ! नासमझ माली ,
तेरे उद्यान पर ,
मंडरा रहा है काला साया .

तू चाहता है ,
तेरा उद्यान खिले ,
और ,
तेरे पुष्पित पुष्पों से ,
और भी उद्यान पुष्पित होते रहे ,
तब ,
तुझे सही समय पर ,
अपनी प्रतिक्रिया ,
काले साय के खिलाफ,
दर्ज करनी होगी ,
यह समझदारी है .

तेरे पुष्प सृजन के सहकारी हैं ,
निर्दय विप्लव के ,
लाचार लक्ष्य नहीं .

यह है एक प्रच्छन्न लड़ाई ,
जिसे समय रहते लड़ ,
अपने लिए ना सही ,
सृजन के लिए ही सही ,
पर लड़ .
छोड़ ना , सभ्यता का लबादा ,
फ़ेंक यह बोझा ,
और ,
मूल्यों के लिए खडा हो जा ,
वर्ना तेरे ही उद्यान के पुष्प ,
तेरे माली होने के वजूद पर ,
प्रश्न चिह्न लगायेंगे ,
फिर तेरे पास पश्चाताप के सिवाय ,
नहीं रहेगा कोई विकल्प .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

हमारी लड़कियां

मैने आज पढ़ा -
ईरान में लड़कियां ,
बुर्के में रहती है ,
वे लडकियां ,
बुर्के में ही करती है नौकरी ,
बुर्के में ही जाती है पढ़ने ,
और ,
हद तो तब हो गयी ,
वे नाटक के मंचन में ,
अमरीकी लड़की का अभिनय भी ,
करती है बुर्के में ,
वे अपने-अपने घरों में ,
किस तरह रहती ,
मैं नहीं जानता ,
क्योंकि ,
इस सम्बन्ध में " असगर वजाहत " भी ,
पूरी तरह नहीं जानते.

मेरे इस कथन पर ,
शायद बहुत खुश होंगे ,
चलो हमारे हिन्दुस्तान में ,
हमारी लड़कियां ,
कितना खुलापन लिए जीती है ,
परन्तु ,
यह कितना सच है ,
इस का प्रमाणन करने के लिए ,
तुम्हारे घरों में ,
बेटियों का होना जरूरी है ,
तभी मालूम चलेगा ,
तुम्हारी हिन्दुस्तानी लड़कियां ,
किस तरह झूल रही है ,
तथाकथित आधुनिकता
और दकियानूसीपन के झूले में ,
जहां सवार है ,
उस के सर पर ,
अपनी ही जात का दोगलापन ,
जिस में जीने के जद्दोजहद में ,
मरने की दुखद इच्छा पालने को ,
हो जाती है प्रतिबद्ध .

मैं यह अच्छे से जानता हूँ ,
ईरान की लड़कियां भी ,
हमारी लड़कियों जैसी ही ,
हमारी लड़कियां है ,
वे बंधनों से मुक्त होनी ही चाहिए ,
लेकिन ,
एक बात बहुत साफ है ,
वे हमारी लड़कियों की तरह ही ,
अपनी ही जात से ,
दोहरी मार से मर नहीं रही है ,
तथाकथित आधुनिकता और
दकियानूसी के झूले में
झूल नहीं रही है .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

ख़त अपने वारिस होते हैं



जब भी तेरे ख़त आते हैं , ख़त में हम ही तो होते हैं
ख़त में मेरी सेहत ले के , बस चिंता के क्षण होते हैं

कागज़ के पुर्जे स्याही में  , दौलत के वे गढ़ होते हैं
भीनी गंध लिए आते ये , ख़त रिश्तों के पथ होते हैं

निर्जन औ अँधेरे घर में  , ख़त आये दीपक होते हैं
उत्सव पर्वों पे आते-जाते , सच में वे ही घर होते हैं

मैंने सब को कह डाला है , ख़त सारे निर्दय  होते हैं
ख़त  होते श्वांसो के जैसे ,  रुक जाये तो डर होते हैं

जब से जा के शहर बसे , ख़त मिलने दुर्भर होते हैं
बंटवारे जैसी चुभती बातें ,नस्तर जैसे स्वर होते हैं

कल ही तो चाचा जी बोले , ख़त बिना सूने होते हैं
दीवारें छाती चढ़ आती , ख़त अपने वारिस होते हैं


                                  - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Tuesday, 26 March 2013

फागुन के दोहे .




कंत  गये  परदेश में , धण  छूटी इस देश.
टेसू  फूले  दहक  के ,   फागुन  दहके गेह .

कब जाऊं मैं देश में , कब  देखूं घर - बार .
देह दहकती ज्वाल सी ,ये फागुन की मार.

मांड रही वो मांडने , रुचिकर औ बहु भांत .
आँगन तब सजता नहीं , बहे ले अश्रु-धार .

कंत सरीखा  कौन है , इस  फागुन के माह.
कंत सरीखा  कंत है , सुन  फागुन के माह.

आकर्षण में आ मिले ,इस फागुन के माह .
अब कैसे होए विलग , नयन हुए अब चार .

धण को धन ना चाहिए ,ना महल नहीं राज .
तू अटका परदेश में ,किस कामण के काज.

हे प्रिय ! मन की चाह में , ऐसो करे न काज .
तुम पे  रंग श्यामल चढ़े , मैं मर जाऊं लाज .

मैं  प्राण  कीर  को सुनूं , वो  गाये  तव नाम .
उड़ने  को  आतुर  हुआ ,  कैसे  रहूँ  रे   राम .

सावन तो सूखा गया , फागुन फुर-फुर जाय .
बालम तू विमुख रहा , यौवन झर-झर जाय .

देवर  रंग  ले  आ  गये ,  बहुरि  करे  श्रृंगार .
समझा  भी  घर है  नहीं ,फागुन  मारे  मार .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Sunday, 24 March 2013

फागुन आया है !




घर-घर भारी धूम मची है , फागुन आया है .
लोग अटारी चढ़ चिल्लाये , लालन आया है .

नन्द हवेली थाली बजती ,
गली-गली में चंग .
ललना गाती मधुर बधाई ,
ले डफली का संग .

नन्द-यशोदा मोदक लाओ , राजन आया है .
लोग अटारी चढ़ चिल्लाये , लालन आया है .

रसिया सरसे मधुर कंठ से,
बरसे रंग हजार .
गाली पर गाली चलती है ,
मस्ती हुई अपार .

राधा से मिलने को कान्हा , कानन आया है .
लोग अटारी चढ़ चिल्लाये , लालन आया है .

फागुन तो फागुन है राजा,
राधा हुई निहाल .
जो लाला पिचकारी मारी ,
बेचारी हुई बेहाल .

बाहों में भर राधा को बोले , फागुन आया है .
लोग अटारी चढ़ चिल्लाये , लालन आया है .

हल्दी केसर रंग घुलाये ,
घर-घर डोल भरे हैं.
नाचे रति सी राधा प्यारी,
कान्ह मृदंग धरे हैं.

नटखट कान्हा राधा के ही , कारण आया है .
लोग अटारी चढ़ चिल्लाये , लालन आया है .

रंगों की इस बारिस ने ,
सब भेद भुलाये हैं .
नेह भरे इस फागुन ने ,
सब दिल मिलाये हैं .

संत्रासों की इस दुनिया में , तारण आया है .
लोग अटारी चढ़ चिल्लाये , लालन आया है .



                                                                                     -त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.


Thursday, 21 March 2013

थोड़ा-थोड़ा सा.

उलझे प्रश्नों को सुलझा लें थोड़ा-थोड़ा सा .
फागुन आया रंग उड़ा दें थोड़ा - थोड़ा सा .

अंतरवेदन से है बोझिल जीवन खाली सा.
बहुत जरूरी हल्का हो लें थोड़ा - थोड़ा सा .

सारा वन भी सुर्ख हुआ है तेरे आनन सा.
रंग गुलाबी दिल का घोलें थोड़ा-थोड़ा सा.

जीवन को जाना जाता है भारी पाठों सा.
सरगम में गा लेते जीवन थोड़ा-थोड़ा सा.

पंख लगाये समय दौड़ता ये परदेशी सा .
आपस में हम रंगे जायें थोड़ा-थोड़ा सा.

किसे पड़ी है कौन देखता जग है भूला सा.
छिड़को दिल का रंगी पानी थोड़ा-थोड़ा सा.

फागुन है सब मौसम में ये मान-मनौवल सा.
कुछ बचपन ही फिर से जी लें थोड़ा-थोड़ा सा.

      -त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द .

Monday, 18 March 2013

बेटियाँ ! तुम नदी हो .

बेटियाँ बीच राह पड़ी ,
कोई निर्जीव ,
वस्तु नहीं है ,
या,
मात्र इस्तेमाल की ,
वस्तु नहीं है ,
जिसे मन चाहे ,
कर लिया इस्तेमाल ,
और मन चाहे ,
दुत्कार दिया ,
किसी बिस्किट के,
रेपर की तरह .

बेटियाँ जीवन का ,
वह उमड़ता श्रोत है ,
जिस के हर प्रवाह पर ,
जीवन ऊर्ध्वमुख होता है .
और ,
जीवन के उत्सव में ,
वह छंदोबद्ध सामगान की तरह ,
मुखरित होती है ,
लेकिन ,
जहां भी बहाती है ,
अपने गर्म-गर्म आंसू ,
तब ,
उस के आंसूओं की तपिश में ,
सब कुछ जल कर ,
भस्म हो जाता है ,
जैसे ज्वालामुखी के लावे में,
विशाल और वज्र से पत्थर भी ,
जल कर ख़ाक हो जाते हैं .

बेटियाँ ,
तुम नदी हो ,
नदी का तरह बहो ,
नदी अपने अवरोधों को ,
तोड़ कर बिखेर देती है ,
ठीक वैसे ही ,
तुम भी अपने अवरोधों को ,
छिन्न-भिन्न कर बिखेर दो ,
बेटियाँ ,
नदी अपने तटों को ,
देख कर गंदा ,
करती है कोप ,
और जल प्लावन में ,
सारी की सारी गन्दगी,
फेंक देती है ,
तटों से दूर ,
तुम भी अवांछित को हटा दो ,
आंसूओं को व्यर्थ ना करते हुए .

बेटियाँ ,
तुम एक बात ,
ठीक से समझो ,
जीवन के सृजन के लिए ,
पवित्र वातावरण के साथ-साथ ,
चाहिए ,
स्नेह और सम्मान का निर्झर ,
तभी तुम ,
पयस्विनी हो कर ,
कर सकोगी सृजन ,
मैं ,
हमेशा ही तुम को ,
भोली गाय की जगह ,
उमड़ती हुई नदी के रूप में ,
देखना पसंद करूंगा ,
जो जीवन के सृजन के लिए ,
आवश्यक रूप ले सके .

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

सभ्यों के वेश में .

सभ्यों के वेश में ,
मिलते हैं ,
हिंस्र वनेले पशु ,
जिन को अपनी ,
पैनी दाढ़ों को ,
गड़ाने की ही ,
लगी रहती है .

नरभक्षी व्याघ्र ,
को नरों के वध से ही ,
होती है संतुष्टि ,
ऐसे ही सभ्य वेश में छिपे ,
कुछ हिंस्र पशु ,
करते रहते हैं ,
उन अबोध का शिकार ,
जिन्हें अभी दुनिया का ,
और लहराते जीवन का ,
उत्सव-दर्शन
करना भी है पूर्ण शेष 
पर उन नराधमों को,
तिल-तिल कर अबोध को
मारने में संतुष्टि ही मिलती है.


ये नराधम पिशाच ,
या,
रक्त पिपासु हो कर ,
ले बैठे हैं ,
नागर जन का रूप ,
इसी रूप की शुचि अवनिका में ,
बहुत फर्क करते हैं ,
रिश्तों में ,
कुछ रिश्ते में ये पूर्ण समर्पित ,
कुछ में ,
इन का रूप नराधम का .

घर की चार दीवारों में ,
ये तिल-तिल कर मार रहे हैं,
उन को ,
जो उन के नहीं हो कर भी बने ,
सामजिक सरोकारों में ,
या,
विधि की विडम्बना में ,
ये नराधम शब्दों के ,
पैने सूये से ,
मन छेद रहे छलनी सा,
जिस के कारण मन का ,
कोने-कोने से रिस रहा .
संत्रस्त जीवन ,
हाय ! यह सब कितना ,
संत्रास भरा होता है .

क्या ?
हमने नहीं पहचाना ,
सभ्यों के वेश में ,
नराधमों प्रेतों को ,
हिंस्र निशाचरों को ,
फिर तो सच में ,
हम अपराधी हैं ,
नराधमों !
इस अपराध का
प्रायश्चित करने को ,
हम कृत संकल्प ,
क्या तुम भी ,
करना चाहोगे प्रायश्चित ,
या,
प्रतिशोध का कारण ही
रहना चाहोगे .

  - त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Saturday, 16 March 2013

कविताओं के विद्रोही स्वर


यदि कितना अच्छा होता ,
तुम मेरे दिल की ,
उन तमाम बातों को जान जाते ,
जिन्हें मैं व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ .
जो कि अन्दर ही अन्दर ,
इस तरह उमड़-घुमड़ रही होती है ,
जैसे कोई चक्रवात ,
हाँ उसी चक्रवात की प्रतिक्रिया में ,
मेरी कविता को समझें  .

जिंदगी कहाँ होती आसान ,
कई उतार-चढाव से ,
भरा हुआ है उस का विरल सफर ,
जिस में उतरते-चढ़ते लोग ,
हांफते मिलते हैं ,
लगता है -
कभी किसी बीच चढ़ाई में ,
अब दम निकला कि अब दम निकला,
बस ऊपर चढ़ते जाते हैं,
प्राणवायु की आकांक्षा में बेचारे.

कन्धों पर आरूढ़ ,
घर-परिवार का बोझा भी ,
चिपका हुआ है ,
किसी बैताल की तरह
हाँ , यही बोझ ढोते-ढोते ,
पहुँच जाते हैं यहाँ-वहां ,
जिस से और भी कसैली ,
हो जाती है जिजीविषा,
पर इसी कसैले जीवन से ही ,
कुछ अमृत बूंदों की संभावनाओं में ,
सब सहते हैं ,
जो सहना भी नहीं होता आसान .

तब उसी की प्रतिक्रिया में उपजे ,
कविताओं के विद्रोही स्वर ,
उसी कसैले जीवन में ,
मर्म भेदती वीणा के स्वर से  ,
स्वर भर देते हैं ,
इस स्वर-संजीवन के प्रभाव से ,
फिर मृत संसार खडा हो जाता ,
एक हल्का सुरभित ,
प्राणवायु का झोंका फहरा जाता है ,
ले जीवन का केतन ,
जीवन की नयी फसल ,
फिर लहरा जाती ,
जैसे फागुन में हो जाती है ,
नवसंवत्सर की तैयारी.

               - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

इस के भी कुछ मायने हैं.

फूल खिला तेरी नजर से , इस के भी कुछ मायने हैं .
फूल गिरा तेरी नजर से , इस के भी कुछ मायने हैं .

एक बिरवा जो तूने लगाया , फूल भी थे कांटे भी थे .
वो ही बिरवा तूने उजाड़ा , इस के भी कुछ मायने हैं .

कह गए थे बुजुर्ग हम से , तुम राह सब निर्मल रखो .
तू ने राहें उलझा रखी तो , इस के भी कुछ मायने हैं .

लहू से सने हैं पैर सब के , वो दोष भी हम पर मढ़ा है.
तू ने चाकू घर में छिपाया , इस के भी कुछ मायने हैं .

कह रहा था तू ही सभी को , उपवास पर है दिन टिका .
तेरी दाढ़ में हड्डी फंसी तो , इस के भी कुछ मायने हैं .

फौज मरियल सी खड़ी कर , तू ने भी खूब आंसू बहाये.
तेरी सुविधाएं बढ़ गयी नित , इस के भी कुछ मायने हैं.

तिस्नगी में कितने मरे हैं , उन की मैयत में तू न था.
उन की शहादत कह रहा तू , इस के भी कुछ मायने हैं.

लोग अंगुल दो ऊंचे हुए कुछ , कद तेरा छोटा हुआ तब.
तब पैरों में चलाई थी करौती, इस के भी कुछ मायने हैं.

कुछ लोग कुदाली थामते हैं , कुछ कद तेरा भी नापते .
कुछ लोग मिट्टी खन रहे तो , इस के भी कुछ मायने हैं.

                            - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्

डुगडुगी कब से बजी है

डुगडुगी कब से बजी है , जोर की बाजी जमी है
तमाशबिन भी आ गये , भीड़ बढ़ती जा रही है

इक जमूरा सामने आ , बाजीगरी से टकरा रहा
कश्मकश के माहोल में , सांस थमती जा रही है

खाली कटोरा उठ गया , खाली ही पलटा गया है
फिर कई जो गुल खिले , ताली बजती जा रही है

बालिस्त भर का जमूरा , अब जमीं पर सो गया
दो टूक देखा बाजीगरी में ,आँख बहती जा रही है

एक सन्नाटा पसर कर , भीड़ को है जड़ कर रहा
छटपटाता देखा जमूरा , भीड़ सुबकती जा रही है

भावना की बाजियों में , आदमी की चालें खुली हैं
बाजीगरों की साजिशों में , भीड़ फंसती जा रही है

पहले तो गुल का खिलाना , फिर जमूरा काटना
हमदर्दी से बाजीगरों की , जेब भरती जा रही है

ये डुगडुगी ये बाजीगिरी , रोज की सौदागिरी भी
बीच चौराहे पर ही चलेगी , भीड़ जुटती जा रही है

ले ने को तो सौदा गये थे , हाथ खाली लौट आये
क्या करे ये ग़ालिब बिचारे , जेब कटती जा रही है

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Saturday, 9 March 2013

जिंदगी का हाट ही ना मिलता.

उम्र का दरिया बिखर जाता , यदि तेरा किनारा ना मिलता.
फिर ये दुनिया भी ना होती , जिंदगी का हाट ही ना मिलता.

तेरे पहलू में सिमट कर के , हर कोई खोलता अपनी आँखें.
ज़रा सा भी वो खिसक जाए , फिर कौन है जो यहाँ मिलता.

तू एक हौवा इस महफिल का , तेरे रंग जो हजारों पे हजार .
तेरे रंगों की होती ना बारिस , गुलशन गुलजार ना मिलता .

तू नूर है जो फैला हर ओर , जिस के लिए जुकता खुदा भी.
तेरी रहमते ना होती यहाँ पे,खुशियों का उजाला ना मिलता.

तेरे होठों पे देखी है हंसी ही , भले दिल में रहा दर्द का दरिया .
तेरी नर्मी के गलीचे ना होते, मुहोबतों का रिश्ता ना मिलता .

हर रूप में तेरे कदमों ने ही , मेरी जिंदगी को सदा ही निहारा.
ऐ नूर !मेरा क्या होता यहाँ पे , जो तेरा सहारा ही ना मिलता.


- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द .

ब्रह्म-राक्षस

उस की अपनी ऐंठन है ,
उस ऐंठ में ही ,
ढो रहा है कई सारी गांठे ,
उन गांठों में फँस गया है ,
फंसा-फंसा ही चिल्लाता है ,
ब्रह्म-राक्षस सभ्यों के मध्य .

ब्रह्म-राक्षस चीखता है ,
अपनी भयावह डकारों से,
सारा वातावरण कर देता है कसेला ,
अपनी समस्त चेतना को ,
लगाए रखता है ,
हर उस व्यक्ति को चबा जाने में ,
जिसने भी काटा है रास्ता ,
उस के बरगद के नीचे से .

सभ्य डरते हैं ,
उस के अदृश्य व्यक्तित्त्व से ,
उस की हिंस्र अभिवृत्तियों से ,
उस की तुच्छ प्रवृत्तियों से ,
उसकी गंदली विचारधार से,
तिस पर वह ब्रह्म-राक्षस जो है ,
हाँ , वह ब्रह्म-राक्षस ,
पैदा हुआ है ,
किसी त्रस्त आत्मा के शाप से ,
जिस के कारण ,
भटकता है वह शापित ब्रह्म-राक्षस ,
उस के ही अपने अन्दर ,
अपने ही अहम् के जंगल में .

यह और भी बुरा हुआ ,
उसे बोध हो गया है कि
वह है ब्रह्म-राक्षस ,
जिस का तोड़ नहीं है किसी के पास,
क्योंकि वह अच्छे से जानता है ,
सभ्य नहीं जानते ,
शाबर मारण-उच्चाटन मन्त्र ,
रक्षा या कीलक मन्त्र ,
इसीलिए तो वह ,
भयंकर अट्टहास कर ,
स्वच्छंद होता चला जा रहा है ,
हाँ एक बात है ,
सभ्यों का मोक्ष तो निश्चित है ,
पर ब्रह्म-राक्षस ,
जन्म-जन्मान्तर ,
अपनी ऐंठन की गांठों में ही ,
संत्रास भोगता रहेगा ,
बेचारा....... " ब्रह्म-राक्षस " ,
उस के प्रति मेरी सहानुभूति है,
बेचारा............................

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Saturday, 23 February 2013

अब सहा जाता नहीं .



सरोवर में नित्य कंठ सूखे , अब सहा जाता नहीं .
पानी का मर जाना हम को, अब सहा जाता नहीं.

हलक तर करने के लिए ही , हम सरोवर खोदते .
खुले में अधिकारों का मरण ,अब सहा जाता नहीं.

शुष्क  होठों पर जीभ फिराये , सांस लेते जा रहे हैं.
पर मछलियों का वो तडफना,अब सहा जाता नहीं.

कल तलक तो हम सोचते , आयेंगे वे पानी लिए.
पर धुंआ उड़ाते लौट आते , अब सहा जाता नहीं.

तड़फती पाई मछलियाँ को , पहले सहलाना है .
फिर दावतें उन की उड़ाना , अब सहा जाता नहीं.

जल  रही  थी बस्तियां तब , उन को कहाँ  देखते.
वो भीड़ में उनका सिसकना ,अब सहा जाता नहीं.

हाथ उनके बढते  प्यार से , सहलाने  में गाल को .
फिर पेट की तली  नापना , अब सहा जाता नहीं.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.


दहशत लाये हैं ,कुछ पागल हैं .


कुछ  वहशी हैं , कुछ पागल हैं .
दहशत लाये हैं ,कुछ पागल हैं .

सभी चल दिये , अमन की डगर.
अमन कुतरते वे ,कुछ पागल हैं .

प्यार से गीली हैं , गली हमारी .
नमक बिछाते वे ,कुछ पागल हैं.

मिले हुए दिल ,कटते भी कहीं .
काटने पर तुले , कुछ पागल हैं.

पकी हुई फसल , मुहोबतों की .
रास नहीं जिन्हें , कुछ पागल हैं.

सेकना चाहते ,सियासती गोटी .
वे जलाते बारूद ,कुछ पागल हैं .

जानते ही नहीं , हमारी फितरत .
हम मिट्टी में सने,कुछ पागल हैं.

मिट्टी में जियें हैं , मिट्टी में मरेंगे .
तबियत ही ऐसी , कुछ पागल हैं.

तिरंगे की कसम ,यार अब सुधर.
चिरोरी होगी नहीं, कुछ पागल हैं.

बारूदी धमाके , मार सकते नहीं.
मर-मर के जिए ,कुछ पागल हैं.

मिटाने पर भी ,जो मिटती नहीं .
हस्ती हमारी भी , कुछ पागल हैं.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द .

Wednesday, 20 February 2013

अभिव्यक्ति के पर आये हैं


चिड़िया की हुई बगावत है , ज़रा संभल के चल .
कबूतर ने भी पर खोले हैं , ज़रा संभल के चल.

तेरे कलदार चला करते थे , कभी खुले गगन में .
अब तेरी टकसाली बंद हुई , ज़रा संभल के चल .

तेने अपने पंख फैला कर , हरदम डर घोला था.
सब परिंदे उड़ने को आतुर , ज़रा संभल के चल .

काल सरीखे तेरे पंजों ने , तन-मन चीर दिये थे .
चिड़िया ने चोंच उठाई है , ज़रा संभल के चल.

तेरे काले साये से डर कर , जो पेड़ों में छिपते थे,
वे सब मरने को ही चल पड़े , ज़रा संभल के चल .

ठकुरसुहाती करने वाले , ओ काले कौए तू सुन .
अभिव्यक्ति के पर आये हैं , ज़रा संभल के चल .

                                - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Sunday, 17 February 2013

संवेदना तो मर गयी है


एक आंसू गिर गया था , एक घायल की तरह .
तुम को दुखी होना नहीं , एक अपने की तरह .

आँख का मेरा खटकना , पहले भी होता रहा .
तेरा बदलना चुभ रहा , महीन रेत की तरह .

गर्म नारों से बदलना , चाहते थे हम सभी को ,
अब हवा में उड़ रहे हो , शुष्क पत्ते की तरह .

मेरी कमीजों पर कभी , तुम गुलाब से थे सजे .
अब हो गए भाव वाले , तुच्छ कागज की तरह .

दुःख नहीं है इस बात का , पास मेरे आते नहीं
खून तेरा क्यों हो गया है , खार पानी की तरह .

लोग अब भी आश्वस्त हैं , राहतें ले आयेगा ही.
वे आसमान में ताकते हैं , भक्त लोगों की तरह .

अब मुझे मालूम है कि , दिल तेरा सुनता कहाँ .
संवेदना तो मर गयी है , व्यर्थ उपमा की तरह.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Thursday, 14 February 2013

अग्नि पे चुम्बन उगते हैं.


आशाओं  पर सब पलते हैं .
तप के ही अंकुवे निकले हैं .

मांझी सोचे ,
किश्ती लेकर .
घर आऊँगा ,
खुशियाँ लेकर .

कौन कहे वह ,
घर को आये .
कौन कहे वह ,
सागर बस जाए .

लहरों पर मांझी चलते हैं.
छोटी किश्ती पे मचले हैं.

वो दीवाने  ,
तट  आते हैं.
लहर पीट के ,
घर भरते हैं.

रात कटी है ,
अपने ले कर .
भोर चले फिर,
सपने ले कर .

झंझा पर सपने बसते हैं.
अग्नि पे चुम्बन उगते हैं.

कल उन का भी ,
घर होगा .
घर में किस का ,
डर होगा .

गर्म तवे से ,
गंध उठेगी .
मृदुल भुजाएं ,
अंक कसेगी.

आशाओं  पर घर चलते हैं .
पतझड़ पर बसंत फलते हैं .

                    - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

.

Tuesday, 12 February 2013

यादें ऐसे गुंथ गयी , फूल हो कपास का.



यादें ऐसे गुंथ गयी , फूल हो कपास का.
सोलह कलाएं लिए, चाँद हो आकाश का .

जिंदगी तकली बनी ,
गोल-गोल घूमती .
यादों का कपास लिए ,
नर्म सूत्र कातती .

बंध उन के खोल दूं  ,खेत हो कपास का .
यादें ऐसे गुंथ गयी , फूल हो कपास का.

दिन कमल सा खिले ,
यादों का सूरज लिए .
दिन कमल सा ढले ,
यादों का सूरज लिए .

यादें नित्य काटती , वेग प्रीत प्रवास का.
यादें ऐसे गुंथ गयी , फूल हो कपास का.

मोन की आयोजना में ,
सलवटें ही बोलती .
सच कहूं तो जिन्दगी ,
बावरी सी डोलती .

हर गली में शोर है , यादों के उजास का .
यादें ऐसे गुंथ गयी  , फूल हो कपास का.

                                           -त्रिलोकी मोहन पुरोहित , राजसमन्द.

Sunday, 10 February 2013

उजाले की नदी ले कर जो तुम आये .



उजाले की नदी ले कर जो तुम आये .
किनारा ही पा लिया है जो तुम आये .

अंधेरों में बहुत कड़वे ,
घूँट ही उतारे हैं .
कई कंकड़ कई कांटे ,
हाथों से बुहारे हैं .

बहुत घावों को भूले हैं जो तुम आये .
उजाले की नदी ले कर जो तुम आये .

होठों को बंद किये बैठे ,
थे बहुत पहरे .
सुनता कौन हमारी पीर ,
थे सभी बहरे .

गूंगे भाव गीत बन बैठे जो तुम आये .
उजाले की नदी ले कर जो तुम आये .

चलो छोडो उनको अब,
हमें क्या कहना है .
दरिखाने में फूलों को ,
उन्हीं को सहना है.

आँखों से नहीं दिखता जो तुम आये .
उजाले की नदी ले कर जो तुम आये .

                    - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.


Saturday, 9 February 2013

कहे चेतना , दिल से सुन .


कुछ कहता हूँ , उस को सुन .
दिल की बातें , दिल से सुन .

कागज़ की नौका,
जल की धार.
मिट्टी का माधो
लिये पतवार.

आँख से देख , ठीक से सुन .
धारा का वेग , दिल से सुन .

नौका तिरती  ,
धारा-अनुकूल .
नौका डूबती ,
धारा-प्रतिकूल .

सुप्त चेतनता ,जागे तो सुन .
क्षण भी बोले , दिल से सुन .

अनुभव-अनुभव ,
अपनी ही पूँजी .
दिव्य चेतना ,
सब में ही कुंजी.

हाथ बोलते , क्षण से सुन .
कहे चेतना , दिल से सुन .

                     - त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

Friday, 8 February 2013

अंतिम क्षण तक

बहुत दूर से ,
कोई निमंत्रित करता है ,
पर ,
मैं हूँ कि,
लाख प्रयत्नों के ,
बाद भी जा नहीं पाता हूँ ,
मुझे डर है अपनी ही जड़ों से,
कट जाने का 
और,
अपनी जड़ों की ,
मिट्टी को खो देने का.

मैं जिस धरा पर खडा हूँ ,
वह चोकोने कागज़ की तरह ,
रोज बंट रही है,
बंटी हुई धरती के टुकडे 
कागज की पन्नियों की तरह ही ,
इधर से उधर छितर रहे हैं ,
मैं जिस टुकडे पर खडा हूँ ,
वह भी रोज हिलता है ,
शायद एक दिन वह टुकड़ा भी ,
अन्य टुकड़ों की तरह उड़ जाएगा ,
और ,
वह जगह ,
किसी अन्य की होगी ,
तब मेरे हल्के भार पर ,
भारी पेपरवेट हंसेगा.

हर बार पत्र में लिखा होता है -
चले भी आओ ,
आखिर वहां क्या रखा है ?
जो भी तुम वहां रह कर ,
नहीं जुटा सके ,
वह सब का सब तुम्हे ,
अनायास ही यहाँ मिल जाएगा .
....................( ऐसा ही बहुत कुछ )
हर बार मुझे उन पत्रों पर ,
चिढ हो आती है ,
मैं उन्हें अपनी करतली में, 
भींच-भांच कर ,
जोर से धरा पर पटक देता हूँ ,
हाँ , उसी धरा पर ,
जो कागज़ की तरह ही ,
रोज-रोज बंट रही है ,
लेकिन इस बंटती हुई ,
धरती से भी, 
मुझे बेहद लगाव है,
क्योंकि ,
मेरी पहचान इसी ,
बंटती हुई धरती से है ,
और ,
इस पहचान को बनाने में ,
मेरे जीवन का स्पंदन ,
किसी भव्य अनुष्ठान की ,
मंत्र-आहुति में ,
समिधा सा आहूत हुआ है .

मेरे साथ पनपता है ,
कोई महावृक्ष ,
पादप -लता या झाडी भी ,
तो मुक्त हो कर पनपे ,
उस से तो मुझे सदा ही ,
परितोष मिलेगा ,
क्योंकि ,
सब के होने पर ही ,
यह संसार फलीभूत होता है ,
तब इन संस्थितियों में ,
मेरा भी होना ,
अत्यावश्यक सा है .
यही विचार मुझे निरंतर ,
अपनी जड़ की मिट्टी से ,
जोड़ रहा है ,
मेरे जीवन के अर्थ समान ,
इसीलिए मेरा प्रयत्न है -
यहीं खडा रह , यहीं जमा रह ,
अंतिम क्षण तक रोक रखूँ ,
इस धरा को बटने में कागज समान.

- त्रिलोकी मोहन पुरोहित, राजसमन्द.

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